मोहन उप्रेती जी का जन्म 1928 में रानीधारा, अल्मोड़ा में हुआ था। ये सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और लोक संगीत के मर्मज्ञ थे, कुमांऊनी संस्कृति, लोकगाथों को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में इनकी अहम भूमिका रही। १९४९ में इन्होंने एम०ए० (डिप्लोमेसी एण्ड इंटरनेशनल अफेयर्स) की डिग्री प्राप्त की। १९५२ तक अल्मोड़ा इण्टर कालेज में इतिहास के प्रवक्ता पद पर कार्य किया। १९५१ में लोक कलाकार संघ की स्थापना की, १९५० से १९६२ तक कम्युनिस्ट पार्टी के लिये भी कार्य किया। इस बीच पर्वतीय संस्कृति का अध्ययन और सर्वेक्षण का कार्य किया। कूर्मांचल के सुप्रसिद्ध कलाकार स्व० श्री मोहन सिंह रीठागाड़ी (बोरा) के सम्पर्क में आये। कुमाऊं और गढ़वाल में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम किये, वामपंथी विचारधाराओं के कारण १९६२ में चीन युद्ध के समय इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और नौ महीने का कारावास भी झेला। जेल से छूटने के बाद अल्मोड़ा और सारे पर्वतीय क्षेत्र से निष्कासित होने के कारण इन्हें दिल्ली में रहना पड़ा। दिल्ली के भारतीय कला केन्द्र में कार्यक्रम अधिकारी के पद पर इनकी तैनाती हुई और इस पद पर यह १९७१ तक रहे। १९६८ में दिल्ली में पर्वतीय क्षेत्र के लोक कलाकारों के सहयोग से पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना की। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली में १९९२ तक प्रवक्ता और एसोसियेट प्रोफेसर भी रहे।
विश्व स्तर पर गढ़्वाल और कुमाऊं की लोक कला की पहचान कराने में उप्रेती जी का विशिष्ट योगदान रहा है। अपने रंगमंचीय जीवन में इन्होंने लगभग २२ देशों की यात्रा की और वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। १९८३ में अल्जीरिया, सीरिया, जार्डन, रोम आदि देशों की यात्राएं की और वहां पर सांस्कृतिक कलाकारों के साथ पर्वतीय लोक संस्कृति को प्रचारित किया। १९८८ में २४ पर्वतीय लोक कलाकारों के साथ चीन, थाईलैण्ड और उत्तरी कोरिया का भ्रमण किया। श्रीराम कला केन्द्र के कलाकारों के साथ लगभग २० देशों का भ्रमण किया। १९७१ में सिक्किम के राजा नाम्ग्याल ने इन्हें राज्य में सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने के लिये विशेष रुप से आमंत्रित किया। अल्मोड़ा में इन्होंने अपने अनन्य सहयोगियों सर्व श्री बृजेन्द्र लाल शाह, बांके लाल शाह, सुरेन्द्र मेहता, तारा दत्त सती, लेनिन पन्त और गोवर्धन तिवाड़ी के साथ मिलकर “लोक कलाकार संघ” की स्थापना की। अपने रंगमंचीय जीवन में श्री उप्रेती जी ने पर्वतीय क्षेत्रों के लगभग १५०० कलाकारों को प्रशिक्षित किया और १२०० के करीब सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। राजुला-मालूशाही, रसिक-रमौल, जीतू-बगड़वाल, रामी-बौराणी, अजुवा-बफौल जैसी १३ लोक कथाओं और विश्व की सबसे बड़ी गायी जाने वाली गाथा “रामलीला” का पहाड़ी बोलियों (कुमाऊनी और गढ़वाली) में अनुवाद कर मंच निर्देशन कर प्रस्तुत किया। इसके अतिरिक्त हिन्दी और संस्कृत में मेघदूत और इन्द्रसभा, गोरी-धन्ना का हिन्दी में मंचीय निर्देशन किया।
मोहन उप्रेती जी भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग की लोक नृत्य समिति के विशेषज्ञ सदस्य रहे, हिमालय की सांस्कृतिक धरोहर के एक्सपर्ट सदस्य और भारतीय सांस्कृतिक परिषद के भी विशिष्ट सदस्य रहे। देश की प्रमुख नाट्य मंडलियों से इनका सीधा संपर्क रहा, कई नाटकों के संगीतकार रहे, इनमें प्रमुख हैं- घासीराम कोतवाल, अली बाबा, उत्तर रामचरित्त, मशरिकी हूर और अमीर खुसरो।
लोक संस्कृति को मंचीय माध्यम से अभिनव रुप में प्रस्तुत करने, संगीत निर्देशन और रंगमंच के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये इन्हें साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा १९६२ में पुरस्कृत किया गया। संगीत निर्देशन पर इन्हें १९८१ में भारतीय नाट्य संघ ने पुरस्कृत किया, लोक नृत्यों के लिये संगीत नाटक अकादमी द्वारा १९८५ में पुरस्कृत हुये। हिन्दी संस्थान उ०प्र० सरकार नें इन्हें सुमित्रानन्दन पन्त पुरस्कार देकर सम्मानित किया, वे जोर्डन में आयोजित समारोह में प्रसिद्ध गोल्डन बियर पुरस्कार से भी पुरस्कृत हुये। वे इण्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन (इप्टा) के भी सदय रहे। सलिल चौधरी, उमर शेख और बलराज साहनी के साथ मिलकर कई कार्यक्रम भी प्रस्तुत किये। उनके द्वारा प्रचलित छ्पेली “ओ लाली ओ लाल हौंसिया” की धुन को चुराकर फिल्म “गीत गाया पत्थरों ने” की धुन बनाई गई। १९९७ में उत्तराखण्डी लोक संस्कृति जगत का सितारा हमसे दूर चला गया, इनका गाया और संगीतबद्ध किया गया लोकगीत “बेडू पाको बारा मासा” चिरकाल तक हमें उनकी याद दिलाता रहेगा। जब जवाहर लाल नेहरु जी ने उनके कंठ से यह गीत सुना तो उन्होंने मोहन दा का नाम “बेडू पाको ब्वाय” रख दिया।
आज यह बेडू पाको ब्वाय भले ही हमसे दूर चला गया हो लेकिन उनके गाये गीत चिरकाल तक हमारे हृदय में उनकी स्मृति को ताजा रखेंगे।
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